फैज़ अपनी इश्क़िया कविताओं और ग़ज़लों में उतना ही अपनी भावनाओं के पैकर दिखाई देते हैं जितना कि इंक़लाबी विषय की कविताओं और ग़ज़लों में| लेकिन मरहला ओ मुक़ाम पर वह अपने कलाम में खूबसूरत तरकीब और शब्दों के खूबसूरत चयन से काम लेते हैं| संतोष जनक बात तो यह है कि मतलब से भरपूर सुंदर शब्दों को जिस सुंदरता के साथ पंक्तियों में सजाते हैं उससे बिलकुल ही अलग ख़ूबसूरती और आपसी ताल मेल पैदा हो जाती है और इन्ही विशेषताओं से फैज़ की कविताओं और ग़ज़लों की लोकप्रियता बढ़ती है| फैज़ की इन्ही विशेषताओं का अंदाज़ा इनकी कुछ चयनित कविताओं से लगाया जा सकता है|
मोहब्बत की दुनियाँ पे शाम आ चुकी है
स्याह पोश हैं ज़िन्दगी की क़बाएँ
तग़ाफ़ुल के आग़ोश में (खुदा वो वक़्त न लाये)
ज़िन्दगी किसी मुफ़लिस की काबा, हर घड़ी दर्द के पेवंद लगे जाते हैं,
अरसाए डहर की झुलसी हुई वीरानी, अजनबी हाथों का बे नाम गिरां बार ए सितम,
हुस्न से लिपटी हुई आलम की गोद, चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द,
जिस्म की मायूस पुकार (कविता, चाँद रोज़ और मेरी जान)
फैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों में कभी इश्क़िया अहसासात और रूमानियत कभी कम नहीं हुई वो बराबर नज़्मों और ग़ज़लों में अहसासात की शिद्दत को असर अंगेज़ी के साथ व्यक्त करने के लिए शब्दों की सुन्दर और बे मिसाल तरीके से पंक्तिबद्ध करते हैं| तारीफ़ की बात यह है कि फैज़ अहसासात की शिद्दत को बर्दाश्त करने की पूरी सलाहियत अपने अंदर रखते हैं| हर उस मुक़ाम पर जहाँ अहसासात का उरूज आता है वह इन्तेहाई ज़ब्त ओ तहम्मुल से काम लेते हैं| शायर के दिल पे जो गुज़रा है उसे वो सब्र ओ ज़ब्त के साथ नोक ए ख़ात्मा तक लाने का सलीक़ा रखता है|
मचलती रहीं सीने में लाख आरज़ूएं
तड़पती हैं आँखों में लाख इल्तेजाएँ
तग़ाफ़ुल के आग़ोश में सो रहे हैं
तुम्हारे सितम और मेरी वफ़ाएं
मगर फिर भी ऐ मेरे मासूम क़ातिल
तुम्हें प्यार करती हैं मेरी दुआएँ
(नज़्म, अंजाम)
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गुम है इक कैफ में फ़िज़ाए हयात
ख़ामुशी सज्दए नयाज़ में है
हुस्न मासूम ख़्वाब ए नाज़ में है
ऐ कि तू रंग ओ बू का तूफां है
ऐ कि तू जल्वः गर बहार में है
ज़िन्दगी तेरी इख़्तियार में है
फूल लाखों बरस नहीं रहते
दो घड़ी और है बहार ए शबाब
आ के कुछ दिल की सूना लें हम
आ, मुहब्बत के गीत गा लें हम
मेरी तन्हाइयों पे शाम रहे
हसरत ए दीद नातमाम रहे
दिल में बे ताब है सदाए हयात
आँख गौहर निसार करती है
आसमाँ पर उदास हैं तारे
चाँदनी इंतज़ार करती है
आ कि थोड़ा सा प्यार कर लें हम!
ज़िन्दगी ज़र निगार कर लें हम
(नज़्म, सर्द दशबाना)
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आज की रात साज़े दर्द न छेड़
दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए
और कल की खबर किसे मालूम
दोष ओ फराद की मिट चुकी हैं हदूद
न हो अब सहर किसे मालूम
ज़िन्दगी हेच, लेकिन आज की रात
ऐज़दीयत है मुमकिन आज की रात
आज की रात, साज़े दर्द न छेड़
अब न दोहरा फसानहाए अलम,
अपनी क़िस्मत पे सोगवार न हो
फ़िकर फराद उतार दे दिल से
उम्र रफ्ता पे अश्कबार न हो
अहद ए ग़म की हिकायतें मत पूछ
हो चुकीं सब शिकायतें मत पूछ
आज की रात साज़े दर्द न छेड़
(नज़्म, आज की रात)
फैज़ अपनी शायरी के शुरूआती दौर में रूमानी और जज़्बाती शायर नज़र आते हैं आते हैं| अगर चह उनके जज़्बात ओ अहसासात इन्तेहाई रूमानी हैं लेकिन उन के अंदर ज़ब्त का माद्दा इतना तवना है और सेहतमंद है कि इस की बुनियाद पर ही इस की सलीक़ा और नफासत के साथ पेश करते हैं| इज़हार ए अहसास में फैज़ बहोत मोहतात रहते हैं और संजीदाब ओ पुरसुकून फ़िज़ा में जो कुछ उनको कहना होता है कह जाते हैं चूँकि फैज़ के नस्बुलऐन का सर चश्मा खालिसतन माद्दी और मुआशी है और इस से उनका तालुक़ अक़्ली, फ़िक्री और इरादी वाक़अ है| फैज़ अपने इस नस्बुलऍन के तंग ओ कोताह पैमाने में ही अपने अहसासात का इब्लाग़ करते हैं| शायद एहि सबब है कि फैज़ के अफ़कार की दुनिया में लताफ़त और नफासत है लेकिन अज़मत और वुसअत की कमी है उसकी आरज़ूमन्दी में फैज़ अपने दिल को जलाते हैं| ग़ौर कीजिये, फैज़ का नज़र इतना जामेअ , मुहीत, वसीअ और अमीक़ नहीं है कि वो मुहब्बत ओ बग़ावत और इश्क़ ओ इंक़लाब के मुतज़ाद मोहरकात के दरमियान मुवाफ़क़त और मुताबक़त की फ़िज़ा पैदा कर सकें| यहाँ तक कि जब फैज़ तरक़्क़ी पसंद तहरीक से मुतासिर हुए और तरक़्क़ी पसंदना रुजहानात से वाबिस्ता हुए तो रूमान की दुनिया को खैर आबाद कहा और मुल्क के मोआशी, सयासी और समाजी मसाइल की तरफ माइल हुए| हसरत मुहानी,जोश मलीहाबादी, हफ़ीज़ जालंधरी और अख्तर शेरानी के रूमानी रंग ओ अंदाज़ से अलग हट कर फैज़ ने अपने फ़न में संजीदा फ़िज़ा में फ़िक्र ओ मुशाहेदा और हकीकत पसंदी से काम ले कर, इंसानी दुःख दर्द, ज़ुल्म ओ सितम, जब्र ओ इस्तेहसाल को पेश किया| न इंसाफ़ी और न बराबरी के खत्म पर ज़ोर दिया और समाजी इन्साफ और मसावात का मुतालबा किया| ऐसे ीोंकलाबी और बाग़याना दौर में भी फैज़ की शायरी का हसीं कसर अहसासात की बुन्याद पर क़ायम है| फैज़ ने इश्क़ ओ इंक़लाब की कसक अपने रग ओ रेशा में शिद्दत से महसूस किया है| इसकी आंच में अपने आप को जलने की एक बड़ी जुर्रत की है| इसके अलावा फैज़ की ताक़ीबों और तश्बीहों में नुदरत, नफासत और वज़ाहत है| फैज़ तल्ख़ मसाइल और न साज़गार हालात से घबरा कर न तो ज़ोर ज़ोर से आंसू बहते हैं और न तो ग़मों को भूलने की खातिर फ़िज़ा में क़हक़हे लगते हैं| यहाँ सिर्फ तखैयुल और अहसासात उन का साथ देते हैं| फैज़ के फ़न को संवारने और शगुफ़्ता तर बनाने में उनके बरसूं के क़ीमती तजर्बों को दखल है फैज़ की दुनिया तो अहसासात की ही दुनिया है लेकिन हक़ीक़ी ज़िन्दगी के नसीब ओ फ़राज़, सियासियात से शग़फ़, सहाफत से गहरी दिलचस्पी और जुबां ो बयान के तजुर्बे ऐसे हैं, जिन की बुनियाद पर उनकी शख्सियत और शायरी दोनों निखर और संवर गई है|
फैज़ की शायरी तरक़्क़ी के मदारज तय कर के अब इस नुक़्तए उरूज पर है जिस तक शायद ही किसी दुसरे तरक़्क़ी पसंद शायर की रसाई हो| फैज़ शायर ए अहसासात ओ जज़्बात हैं| बुनियादी तौर पर वो नज़्म के शायर हैं नज़्मों के वसीअ पैमाने में फैज़ ने अपने इफकार ओ अहसासात का इज़हार बड़े ही सलीक़ा से किया है| इस अंदाज़ ए इज़हार से उनकी पोख़्ताकारी ज़ाहिर होती है| ख़यालात ख़्वाह रूमानी हों या इंक़लाबी,हर हाल में यकसां तौर पर अपने अहसासात ओ जज़्बात का इब्लाग़ पोख्ताकारी और सलीक़े से करते हैं| नज़्मों के अलावः फैज़ ने बहुत साड़ी उम्दः ग़ज़लें भी कही हैं| उन्हों ने अपनी ख़ास तवज्जः सनफ ए ग़ज़ल पर सर्फ़ की है| उनकी ग़ज़लों में भी उनके अहसासात का ग़ुलू मिलता है| कहना ग़लत न होगा कि फैज़ की शायरी ग़ज़लों, पाबंद नज़्मों, और आज़ाद नज़्मों पर मुश्तमिल है शायरी की हर सनफ में फैज़ मुनफ़रद और बे मिसाल नज़र आते हैं| गहरे मह्सूसात और बहर ए जज़्बात महसूस होते हैं| फैज़ के बेश्तर शायरी मजमूओं में क़ाबिल ए तवज्जः नज़्मों के साथ, उम्दः ग़ज़लें भी शामिल हैं| दरअसल फैज़ ने उर्दू ग़ज़लों में एक मुमताज़ मुक़ाम हासिल कर लिया है| यह हकीकत उन की शायरी के नक़्श ए अव्वल "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लों से मज़हर है| गो "नक़्श ए फ़रयादी" शामिल ग़ज़लों की तादाद ज़्यादा नहीं है| फिर भी उस की ग़ज़ल इंतखाब है| "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लें खूबसूरत, उम्दः और नफीस हैं हर ग़ज़ल के मुतला से अंदाज़ा होता है कि तरन्नुम के चश्मे फूट रहे हैं| हर ग़ज़ल का मुतला अमीक़ और गहरे अहसास दिलाता है| "नक़्श ए फ़रयादी" में शामिल ग़ज़लों के मुतले :-
इश्क़ मिन्नत कशे क़रार नहीं
हुस्न मजबूरे इंतज़ार नहीं
हुस्न मरहूने जोशे बादः नाज़
इश्क़ मिन्नत कशे फसूने नयाज़
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
काफ़िरों की नमाज़ हो जाए
हिम्मते इल्तेजा नहीं बाक़ी
ज़ब्त का हौसलाः नहीं बाक़ी
चश्मे मैगों ज़रा इधर कर दे
दस्त ए क़ुदरत को बेअसर कर दे
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा है कोई शबे ग़म गुज़ार के
वफ़ा ए वादा नहीं, वादा गर भी नहीं
वो मुझसे रूठे तो थे मगर इस क़दर भी नहीं
राज़ ए उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
कुछ दिन से इंतज़ार सवाल ए दिगर में है
वो मज़महल जो किसी की नज़र में है
फिर हरीफ़ ए बहार हो बैठे
जाने किस किस को आज रो बैठे
फिर लोटा है ख़ुर्शीद जहाँ ताब ख़तर से
फिर नूरे अर्दस्त ओ गिरेबाँ से सहर से
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कई बार उसका दामन भर दिया हुस्न ए दो आलम से
मगर दिल है के उस की खानः वीरानी नहीं जाती
नक़्श ए फ़रयादी में शामिल उम्दः और नफीस ग़ज़लों की तख़लीक़ से फैज़ ने उर्दू ग़ज़ल को अपनी सलाहियतों, तजुर्बों और अफ़कार से फायदा पहुँचाया है| दिल कशी और दिल आवेज़ी अता की है| नई फ़िक्र और नए अंदाज़ से आशना किया है| दस्त ए सबा फैज़ की काविशों शाअरी काविशों का नक़्श ए सानी है| उस में शामिल ग़ज़लें "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लों से ज़्यादा नफीस, उम्दः और दिलकश हैं| उनकी दिलावेज़ी, दिलबरी, दिलकशी और नफासत उनके मतलों से ज़ाहिर है:-
मोहब्बत की दुनियाँ पे शाम आ चुकी है
स्याह पोश हैं ज़िन्दगी की क़बाएँ
तग़ाफ़ुल के आग़ोश में (खुदा वो वक़्त न लाये)
ज़िन्दगी किसी मुफ़लिस की काबा, हर घड़ी दर्द के पेवंद लगे जाते हैं,
अरसाए डहर की झुलसी हुई वीरानी, अजनबी हाथों का बे नाम गिरां बार ए सितम,
हुस्न से लिपटी हुई आलम की गोद, चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द,
जिस्म की मायूस पुकार (कविता, चाँद रोज़ और मेरी जान)
फैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों में कभी इश्क़िया अहसासात और रूमानियत कभी कम नहीं हुई वो बराबर नज़्मों और ग़ज़लों में अहसासात की शिद्दत को असर अंगेज़ी के साथ व्यक्त करने के लिए शब्दों की सुन्दर और बे मिसाल तरीके से पंक्तिबद्ध करते हैं| तारीफ़ की बात यह है कि फैज़ अहसासात की शिद्दत को बर्दाश्त करने की पूरी सलाहियत अपने अंदर रखते हैं| हर उस मुक़ाम पर जहाँ अहसासात का उरूज आता है वह इन्तेहाई ज़ब्त ओ तहम्मुल से काम लेते हैं| शायर के दिल पे जो गुज़रा है उसे वो सब्र ओ ज़ब्त के साथ नोक ए ख़ात्मा तक लाने का सलीक़ा रखता है|
मचलती रहीं सीने में लाख आरज़ूएं
तड़पती हैं आँखों में लाख इल्तेजाएँ
तग़ाफ़ुल के आग़ोश में सो रहे हैं
तुम्हारे सितम और मेरी वफ़ाएं
मगर फिर भी ऐ मेरे मासूम क़ातिल
तुम्हें प्यार करती हैं मेरी दुआएँ
(नज़्म, अंजाम)
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गुम है इक कैफ में फ़िज़ाए हयात
ख़ामुशी सज्दए नयाज़ में है
हुस्न मासूम ख़्वाब ए नाज़ में है
ऐ कि तू रंग ओ बू का तूफां है
ऐ कि तू जल्वः गर बहार में है
ज़िन्दगी तेरी इख़्तियार में है
फूल लाखों बरस नहीं रहते
दो घड़ी और है बहार ए शबाब
आ के कुछ दिल की सूना लें हम
आ, मुहब्बत के गीत गा लें हम
मेरी तन्हाइयों पे शाम रहे
हसरत ए दीद नातमाम रहे
दिल में बे ताब है सदाए हयात
आँख गौहर निसार करती है
आसमाँ पर उदास हैं तारे
चाँदनी इंतज़ार करती है
आ कि थोड़ा सा प्यार कर लें हम!
ज़िन्दगी ज़र निगार कर लें हम
(नज़्म, सर्द दशबाना)
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आज की रात साज़े दर्द न छेड़
दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए
और कल की खबर किसे मालूम
दोष ओ फराद की मिट चुकी हैं हदूद
न हो अब सहर किसे मालूम
ज़िन्दगी हेच, लेकिन आज की रात
ऐज़दीयत है मुमकिन आज की रात
आज की रात, साज़े दर्द न छेड़
अब न दोहरा फसानहाए अलम,
अपनी क़िस्मत पे सोगवार न हो
फ़िकर फराद उतार दे दिल से
उम्र रफ्ता पे अश्कबार न हो
अहद ए ग़म की हिकायतें मत पूछ
हो चुकीं सब शिकायतें मत पूछ
आज की रात साज़े दर्द न छेड़
(नज़्म, आज की रात)
फैज़ अपनी शायरी के शुरूआती दौर में रूमानी और जज़्बाती शायर नज़र आते हैं आते हैं| अगर चह उनके जज़्बात ओ अहसासात इन्तेहाई रूमानी हैं लेकिन उन के अंदर ज़ब्त का माद्दा इतना तवना है और सेहतमंद है कि इस की बुनियाद पर ही इस की सलीक़ा और नफासत के साथ पेश करते हैं| इज़हार ए अहसास में फैज़ बहोत मोहतात रहते हैं और संजीदाब ओ पुरसुकून फ़िज़ा में जो कुछ उनको कहना होता है कह जाते हैं चूँकि फैज़ के नस्बुलऐन का सर चश्मा खालिसतन माद्दी और मुआशी है और इस से उनका तालुक़ अक़्ली, फ़िक्री और इरादी वाक़अ है| फैज़ अपने इस नस्बुलऍन के तंग ओ कोताह पैमाने में ही अपने अहसासात का इब्लाग़ करते हैं| शायद एहि सबब है कि फैज़ के अफ़कार की दुनिया में लताफ़त और नफासत है लेकिन अज़मत और वुसअत की कमी है उसकी आरज़ूमन्दी में फैज़ अपने दिल को जलाते हैं| ग़ौर कीजिये, फैज़ का नज़र इतना जामेअ , मुहीत, वसीअ और अमीक़ नहीं है कि वो मुहब्बत ओ बग़ावत और इश्क़ ओ इंक़लाब के मुतज़ाद मोहरकात के दरमियान मुवाफ़क़त और मुताबक़त की फ़िज़ा पैदा कर सकें| यहाँ तक कि जब फैज़ तरक़्क़ी पसंद तहरीक से मुतासिर हुए और तरक़्क़ी पसंदना रुजहानात से वाबिस्ता हुए तो रूमान की दुनिया को खैर आबाद कहा और मुल्क के मोआशी, सयासी और समाजी मसाइल की तरफ माइल हुए| हसरत मुहानी,जोश मलीहाबादी, हफ़ीज़ जालंधरी और अख्तर शेरानी के रूमानी रंग ओ अंदाज़ से अलग हट कर फैज़ ने अपने फ़न में संजीदा फ़िज़ा में फ़िक्र ओ मुशाहेदा और हकीकत पसंदी से काम ले कर, इंसानी दुःख दर्द, ज़ुल्म ओ सितम, जब्र ओ इस्तेहसाल को पेश किया| न इंसाफ़ी और न बराबरी के खत्म पर ज़ोर दिया और समाजी इन्साफ और मसावात का मुतालबा किया| ऐसे ीोंकलाबी और बाग़याना दौर में भी फैज़ की शायरी का हसीं कसर अहसासात की बुन्याद पर क़ायम है| फैज़ ने इश्क़ ओ इंक़लाब की कसक अपने रग ओ रेशा में शिद्दत से महसूस किया है| इसकी आंच में अपने आप को जलने की एक बड़ी जुर्रत की है| इसके अलावा फैज़ की ताक़ीबों और तश्बीहों में नुदरत, नफासत और वज़ाहत है| फैज़ तल्ख़ मसाइल और न साज़गार हालात से घबरा कर न तो ज़ोर ज़ोर से आंसू बहते हैं और न तो ग़मों को भूलने की खातिर फ़िज़ा में क़हक़हे लगते हैं| यहाँ सिर्फ तखैयुल और अहसासात उन का साथ देते हैं| फैज़ के फ़न को संवारने और शगुफ़्ता तर बनाने में उनके बरसूं के क़ीमती तजर्बों को दखल है फैज़ की दुनिया तो अहसासात की ही दुनिया है लेकिन हक़ीक़ी ज़िन्दगी के नसीब ओ फ़राज़, सियासियात से शग़फ़, सहाफत से गहरी दिलचस्पी और जुबां ो बयान के तजुर्बे ऐसे हैं, जिन की बुनियाद पर उनकी शख्सियत और शायरी दोनों निखर और संवर गई है|
फैज़ की शायरी तरक़्क़ी के मदारज तय कर के अब इस नुक़्तए उरूज पर है जिस तक शायद ही किसी दुसरे तरक़्क़ी पसंद शायर की रसाई हो| फैज़ शायर ए अहसासात ओ जज़्बात हैं| बुनियादी तौर पर वो नज़्म के शायर हैं नज़्मों के वसीअ पैमाने में फैज़ ने अपने इफकार ओ अहसासात का इज़हार बड़े ही सलीक़ा से किया है| इस अंदाज़ ए इज़हार से उनकी पोख़्ताकारी ज़ाहिर होती है| ख़यालात ख़्वाह रूमानी हों या इंक़लाबी,हर हाल में यकसां तौर पर अपने अहसासात ओ जज़्बात का इब्लाग़ पोख्ताकारी और सलीक़े से करते हैं| नज़्मों के अलावः फैज़ ने बहुत साड़ी उम्दः ग़ज़लें भी कही हैं| उन्हों ने अपनी ख़ास तवज्जः सनफ ए ग़ज़ल पर सर्फ़ की है| उनकी ग़ज़लों में भी उनके अहसासात का ग़ुलू मिलता है| कहना ग़लत न होगा कि फैज़ की शायरी ग़ज़लों, पाबंद नज़्मों, और आज़ाद नज़्मों पर मुश्तमिल है शायरी की हर सनफ में फैज़ मुनफ़रद और बे मिसाल नज़र आते हैं| गहरे मह्सूसात और बहर ए जज़्बात महसूस होते हैं| फैज़ के बेश्तर शायरी मजमूओं में क़ाबिल ए तवज्जः नज़्मों के साथ, उम्दः ग़ज़लें भी शामिल हैं| दरअसल फैज़ ने उर्दू ग़ज़लों में एक मुमताज़ मुक़ाम हासिल कर लिया है| यह हकीकत उन की शायरी के नक़्श ए अव्वल "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लों से मज़हर है| गो "नक़्श ए फ़रयादी" शामिल ग़ज़लों की तादाद ज़्यादा नहीं है| फिर भी उस की ग़ज़ल इंतखाब है| "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लें खूबसूरत, उम्दः और नफीस हैं हर ग़ज़ल के मुतला से अंदाज़ा होता है कि तरन्नुम के चश्मे फूट रहे हैं| हर ग़ज़ल का मुतला अमीक़ और गहरे अहसास दिलाता है| "नक़्श ए फ़रयादी" में शामिल ग़ज़लों के मुतले :-
इश्क़ मिन्नत कशे क़रार नहीं
हुस्न मजबूरे इंतज़ार नहीं
हुस्न मरहूने जोशे बादः नाज़
इश्क़ मिन्नत कशे फसूने नयाज़
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
काफ़िरों की नमाज़ हो जाए
हिम्मते इल्तेजा नहीं बाक़ी
ज़ब्त का हौसलाः नहीं बाक़ी
चश्मे मैगों ज़रा इधर कर दे
दस्त ए क़ुदरत को बेअसर कर दे
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा है कोई शबे ग़म गुज़ार के
वफ़ा ए वादा नहीं, वादा गर भी नहीं
वो मुझसे रूठे तो थे मगर इस क़दर भी नहीं
राज़ ए उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
कुछ दिन से इंतज़ार सवाल ए दिगर में है
वो मज़महल जो किसी की नज़र में है
फिर हरीफ़ ए बहार हो बैठे
जाने किस किस को आज रो बैठे
फिर लोटा है ख़ुर्शीद जहाँ ताब ख़तर से
फिर नूरे अर्दस्त ओ गिरेबाँ से सहर से
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कई बार उसका दामन भर दिया हुस्न ए दो आलम से
मगर दिल है के उस की खानः वीरानी नहीं जाती
नक़्श ए फ़रयादी में शामिल उम्दः और नफीस ग़ज़लों की तख़लीक़ से फैज़ ने उर्दू ग़ज़ल को अपनी सलाहियतों, तजुर्बों और अफ़कार से फायदा पहुँचाया है| दिल कशी और दिल आवेज़ी अता की है| नई फ़िक्र और नए अंदाज़ से आशना किया है| दस्त ए सबा फैज़ की काविशों शाअरी काविशों का नक़्श ए सानी है| उस में शामिल ग़ज़लें "नक़्श ए फ़रयादी" की ग़ज़लों से ज़्यादा नफीस, उम्दः और दिलकश हैं| उनकी दिलावेज़ी, दिलबरी, दिलकशी और नफासत उनके मतलों से ज़ाहिर है:-
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