ज़ुबान किसी मज़हब तक महदूद नहीं होती है और न ही जुबां का तालुक किसी मज़हब ए ख़ास से होता है आम तौर पर उर्दू और हिंदी दोनों काफी मिलती जुलती जुबां है लेकिन जो एक अड़चन है वो सिर्फ दोनों की लिपि है एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो उर्दू ज़ुबान को काफी पसंद तो करते हैं लेकिन लिपि जुदा होने की वजह से पढ़ नहीं पाते हैं मैंने इसी अड़चन को दूर करने की एक कोशिश की है ताकि इसका लुत्फ़ सभी उठा सकें|
फैज़ की शायरी
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें
जो हो ज़ौक़ यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें
हिंदुस्तान के ब शऊर और हस्सास तब्क़ा ने मुल्की सियासत में नुमायां दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी| पहली आलमगीरी जंग और आलमगीरी इंक़लाबात ने दीगर नौ आबादयातियों की तरह हिंदुस्तान को भी चूँकि मुतासिर किया था इस लिए आज़ादी की तहरीकात में कांग्रेस और दूसरी जमातें सरगर्म हो गयी थीं| १७ अक्टूबर १९१७ ई० रूसी इंक़लाब ने हिंदुस्तान के बेदार साहब ए इल्म तब्क़ा को बे हद तक़वियत पहुंचाई| इस इंक़लाब ए रूस से हिन्दुस्तानियों की नुमायां हिम्मत अफ़ज़ाई हुई| हिंदुस्तान में इस इंक़लाब को असरी तक़ाज़ों के ऐतबार से निहायत साज़गार और इस की ऍन मुताबक़ात में शिद्दत से महसूस किया और बड़े इनहमक के साथ बढ़ कर पुरजोश शक़्ल में खैर मक़दम किया| यूँ इतिहादि ताक़तों को अव्वल जंग ए अज़ीम में फतह ओ नुसरत से अज़्म ओ अमल की बुनियाद पर क़िस्मत ने शाद काम किया| लेकिन फिरंगी हुकुमरान हिन्दुस्तानियों को आज़ादी देने के बदले जलियांवाला बाग़ में रस्म ए चंगेज़ी पर गामज़न हो गए| और हज़ारों मर्द ओ ज़न को बेरहमी से मौत के घाट अब्दी नींद सुला दिया| सियासी आज़ादी देने के बजाए पंजाब में मार्शल लॉ सख्ती से नाफ़िज़ कर दिया इन इंसानियत सोज़ वाक़यात से हिंदुस्तान की सियासी, समाजी, तम्मदनि और सकाफति फ़िज़ा मस्मूम हो कर रह गयी| ख़िलाफ़त की तहरीक और गाँधी की तहरीक मवालात की तहरीक ने ऐसे हालात, वाक़यात ग़मनाक और मायूसकुन कैफ़ियात के पेश ए नज़र रद ए अमल के तौर पर जनम लिया| हिन्दुस्तानियों के दिल ओ दिमाग़ में फिरंगी हुकुमरानों के ख़िलाफ़ शदीद नफरत पैदा ही गयी| इस से इनकी तहरीक ए आज़ादी में एक नयी ताक़त आ गयी और जान पड़ गयी| मज़ीद बरां कि आल इंडिया कांग्रेस के बाएँ बाज़ू के हम नवाओं ने अपने इन्तहा पसंदाना नज़रिया के ज़ेर ए असर ताक़त और ज़ोर आज़माई की रह इख़्तियार करना मौज़ूं समझा और इसी मकतब ए ख़याल को अपना क़िब्ला ओ काबा क़रार दे कर सर गर्म ए अमल हो गए|
मज़दूर किसान पार्टी
१९२६ ई० में ही मज़दूर किसान पार्टी बा क़ायदा मद्दे मुक़ाबिल आ कर फिरंगी हुकुमरानों के बर सरे पैकर हो गयी | इनके दिलों में फिरंगियों के खिलाफ नफरत परवरिश पाने लगी यही नफरत रफ्ता रफ्ता शिद्दत इख़्तियार करती चली गयी| यहाँ तक के १९३० ई० में सिविल नाफरमानी की क़ामयाब तहरीक ने आम ज़िन्दगी को सरअत और बारक़ रफ्तारी से हंगामा नवाज़, इन्तेशार अंगेज़ और इंक़लाब पसंद बना डाला | ग़ौर किया जाये तो इसका साफ़ इल्म होता है कि इन हालात के असरात हिंदुस्तान की तहज़ीबी सयासी, सक़ाफ़ती समाजी और अदबी माहौल पर काफ़ी से ज़्यादा गहराईयों तक होने लगे थे| अब तो अदब हो या सयासयात, मज़हब हो मईशत हर शोबा ए ज़िन्दगी में इश्तराकी ख़यालात ओ नज़रयात की अहमरें शमएँ फरोज़ान होने लगी थीं फिल हक़ीक़त फैज़ अहमद फैज़ और इन के हम अस्रों ने इसी माहौल ओ फ़िज़ा में परवरिश पेयी यह एक ऐसा माहौल था जिसमे एक तरफ नए सिरे से तामीर ज़ीस्त और अरतक़ा ए इंसानी का जज़्बा अंगड़ाइयां लेता है तो दूसरी तरफ मायूस, नाकामियों और महरूमियों की बे रहना और बहिमाना ठोकरें भी दिखाई देती हैं इसी तरह ककी मिली जुली कशमकश और हम दर्जा का इम्तजाज फैज़ की फ़िक्री काविशों और शऊरी कोशिशों का नुमाया पहलु है|
फैज़ की शायरी और अदबी ज़ौक़ का पस मंज़र
इस सिसिला में अदब लतीफ़, रूमानियत, और अदब खास तौर से क़ाबिले ज़िकर हैं| अदब लतीफ़,और रूमानियत के अलम्बरदारों का ख्याल है कि अदब का हुस्न लताफ़त, दिलकशी और तासीर इस की सूरी लफ्ज़याति तरकीब ओ तरतीब, अल्फ़ाज़ की ग़नायत, अल्फ़ाज़ की पुर शिकवा सोती तक़रार,खूबसूरत तश्बीहों,हसीं तालमीहों, नादिर अलामतों में मज़मर है| चूँकि लतीफ़ अह्सास के मुतहम्मुल फनकारों और साहिबे शिद्दत अहसास तख़लीक़ कारों में जमालयाती और रूमानी हिस निस्बतन ज़्यादा होती है इस लिए इनके हिसे लतीफ़, मज़ाक़ ए सलीम, ज़ौक़ और वजदान का इज़हार जमालयाती और रूमानी लफ्ज़ ओ रंग और सोत ओ आहंग के ज़रिया मुमकिन है| रूमानियत का वास्ता चूँकि इन्सान की जज़्बाती कैफ़ियात से गहरा होता है इस लिए इस अंदाज़ ए नज़र में अक़ीदत से ज़्यादा जज़्बात का ग़ल्बा होता है इसी लिए उर्दू अदब में बीसवीं सदी की पहली तीन दहाहियों तक के तख़लीक़ कारों के ज़ेहनों और क़ल्बी कैफियात पर रूमानियत के असरात मुसल्लत हैं| मुताअला से पता चलता है की इस अहद की पूरी नसल इस रुजहान से मुतासिर नज़र आती है इस अहद की नसल के किसी गोशे में अक़ली कैफियात और फ़िक्र ओ शऊर के चराग़ मद्धम अंदाज़ में जलते महसूस होते हैं|
उर्दू शायरी का सयासी और समाजी पस मंज़र
चूँकि रूमानियत के अलम्बरदारों के दिल ओ दिमाग़ पर फ़िक्र के मुक़ाबले में तखैयुल और जज़्बात की गिरफ़्त कहीं ज़्यादा होती है इस लिए ये तखैयुल और जज़्बात को अहमियत ज़्यादा देते हैं| रूमानियत में इंफरादि नुक़्ता ए नज़र को एक ख़ास अहमियत हासिल है| कहना चाहिए कि रूमानियत इंसानी रूह और दिल की मख़सूस बालीदगी का नाम है इस में अक़्ली और फ़िक्री अंदाज़ ए नज़र पर जज़्बाती और तखैयुलाती रुजहानात का ग़ुलू होता है|
मुश्किल ही से बीसवीं सदी का कोई शायर होगा कि जो रूमानियत के अफ़्सूं का शिकार न हुआ हो| और जिसने इस पुकार पे लब्बैक न कहा हो|
फैज़ के कलाम
फैज़ के कलाम की साफ़ और वाज़ह निशानदही एक मुश्किल अम्र है| इस लिहाज़ से उनके कलाम को बेहतर तौर पर समझने के लिए उनकी तमाम शारी काविशों को दो बड़े उन्वान में मुंक़सिम कर देना मुनासिब होगा|
(१) रूमानी
(२) इंक़लाबी
रूमानी उन्वानात के तहत फैज़ के कलाम का मुतालआ किया जाए या इंक़लाबी उन्वानात की सारी नज़्मों और ग़ज़लों का तजज़िया किया जाये हर दो उन्वानात के कलाम के पस ए मंज़र में फैज़ की शदीद अहसासात और अमीक़ जज़्बात की कारकर्दगी का अहसास होता है| दर असल फैज़ की तबियत और फितरी रुजहान बुनियादि तौर पर रूमानी है| ये रूमानियत हर क़दम और हर लम्हा फैज़ के साथ साथ है| अगर चह आगे चल कर फैज़ ने अपना दामन रूमानियत के अफ्सों से बचाने की कोशिश भी की लेकिन फिल वाकः वो इस कोशिश में कभी कामयाब न हो सके| रूमानी अनासिर हर हाल में उनके यहाँ कारफ़रमा रहे|
नक़्श ए फ़रयादी
नक़्श ए फरयादी की नज़्म" खुदा वो वक़्त न लाए" के मुतालआ से फैज़ के शायर ए अहसासात होने का शिद्दत से अंदाज़ा होता है और बिलाशुबा यह यक़ीन करना पड़ता है कि वो बुनियादी तौर पर अहसासात के शायर हैं|
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू
सुकूं की नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मुसर्रते पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात, तुझे तल्ख़ काम हो जाए
ग़मो से आईना ए दिल गुदाज़ हो जाए
हुजूम ए यास से बेताब हो के रह जाए
वुफूर ए दर्द से सीमाब हो के रह जाए
तेरा शबाब, फ़क़त ख़्वाब हो के रह जाए
ग़रूर ए हुस्न, सरापा नयाज़ हो तेरा
तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे
तेरी निगाह किसी ग़म गुसार को तरसे
ख़िज़ाँ रसीदा तमन्ना बहार को तरसे
कोई जबीं न तेरे संग आस्ताँ पे झुके
कि जिंस ए अज्ज़ ओ अक़ीदत से तुझ को शायद करे
फरेब ए वादा ए फ़र्दा पे एतमाद करे
खुदा वो वक़्त न लाए कि तुझ को याद करे
वो दिल कि तेरे लिए बेक़रार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है
(नक़्श ए फ़रयादी)
फैज़ पहले कैफ़ियात से मुतासिर होते हैं| माहौल और गर्द ओ पेश के असरात क़ुबूल करते हैं| उन असरात की मुख़्तलिफ़ नौइय्यत की लज़्ज़त महसूस करते हैं| इससे दिलचस्पी भी लेते हैं| लुत्फ़ अन्दोज़ भी होते हैं| अपने शदीद जज़्बा को खूबसूरत अलफ़ाज़ के कालिब में लतीफ़ ओ खुश आहंग बना कर हसीं तरतीब दे देते हैं| फैज़ जिस अंदाज़ के ख़याल को ज़ाहिर करने की ख़ातिर अलफ़ाज़ की दिलकश तरतीब से काम लेते हैं इस के पसे मंज़र में उनके शदीद अहसास की कारफ़रमाई होती है| उनकी नज़्म "खुदा वो वक़्त न लाए" में अलफ़ाज़ की ख़ूबसूरत तरतीब ने उनके अहसासात को पुर तासीर बना दिया है|
फैज़ आला शारी आहंग भी रखने की कोशिश करते हैं और इज़हार ए ख़याल में नुदरत से भी काम लेते हैं| यही हाल फैज़ की दीगर नज़्मों का है| इस सिलसिला में एक और मिसाल ----------
हैं लबरेज़ आहों से ठंडी हवाएँ
उदासी में डूबी हैं घटाएँ
मोहब्बत की दुनिया पे शाम आ चुकी है
सियाह पोश हैं ज़िन्दगी की निगाहें
मचलती हैं सीने में लाख आरज़ूएँ
तड़पती हैं आँखों में लाख इल्तिजाएँ
तग़ाफ़ुल के आग़ोश में सो रहे हैं
तुम्हारे सितम और मेरी वफ़ाएँ
मगर फिर भी ऐ मेरे मासूम क़ातिल
तुम्हें प्यार करती हैं मेरी दुआएँ
(अंजाम) नज़्म
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जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है, गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
अरसाए दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पह यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे नाम गिरां बार सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गोद
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बे सूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मेरी जान, फ़क़त चंद ही रोज़
(चंद रोज़ और मेरी जान) नज़्म
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